सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

हर पल अपने में खास है

हाल की पोस्ट

एक तान निःशब्द : कुछ भी

निःशब्द को थामे कितने एकाकी निकल आए है हम एक चौड़ी सपाट रेखा में दौड़ती जाती सड़क उस क्षितिज को छूती सी प्रतीत होती थी जिसके जितने निकट जाओ वह उतना ही दूर होती जाती है और जितना दूर , उतना ही निकट अजीब विरोधाभास है ना । हाँ , इसे ही सामंजस्य का पर्याय भी माना जा सकता है । स्व के अधीन अहं

जैसे ये सूरजमुखी

हर  दिन  एक  नई  शुरुआत  है  ।  नए  सवेरे  के  साथ   बीते  ओस  कण  संवाहक  है  -  साथ  चल  देने  के ,  बिना  किसी  तर्कजाल  में   फसे   आत्मा  की  आवाज  अपने  दिल  की  धड़कन  के  साथ   धड़कने  का  फलसफा  ।  तट  पर  तूफानों  का  आना -  जाना   लगा  ही  रहता  है ,  पर  इस  डर  से  कश्तियाँ  सागर  में  उतरने  से  इंकार   नहीं  कर देती  ।